Friday, July 4, 2008

हमारी मातृभाषा

बहुत दिनों से सोच रहा था की हिन्दी भाषा में कुछ लिखू। एक हिन्दी भाषी होने के नाते मुझे आभास होता रहता की मेरा कर्तव्य है की यदा-कदा ही सही मैं हिन्दी में लिखूं अवश्य। बस इसी उधेड़बुन में था की बरसो से हिन्दी छोड़ चुका मैं, क्या इस से न्याय कर पाउँगा ? फ़िर सोचता, की क्या रखा है इस न्याय आदि के आडम्बर में, प्रयत्न तो किया जाए। इसी बीच अमिताभ के ब्लॉग पर हिन्दी में एक लेख देख कर मेरा निश्चय ओर सशक्त हो गया।

हिन्दी की बात चली है तो सोचता हूँ अब इसी विषय पर थोड़ा विचार विमर्श किया जाए । विद्यालय के दिनों में मेरी हिन्दी में बहुत रूचि रही। इसका श्रेय मेरे नवी कक्षा के अध्यापक श्रीमान डॉक्टर अशोक कुमार ‘लव’ को जाता है। हिन्दी के निबंध ओर कहानियो को बड़ी सूक्ष्मता से समझाते हुए वे पूरा ध्यान इस बात का भी रखते थे की इसके गूढ़ पहलुओं को नज़रंदाज़ न किया जाए। उनकी इस शैली से मैं बहुत प्रभावित हुआ। आज भी उन बीतें दिनों को याद करता हूँ तो एक मुस्कान मेरे चेहरे पर एकाएक आ जाती है। हमारे अध्यापक होने के साथ साथ वे एक सिद्धहस्त कवि एवं लेखक भी थे। फ़िर यह तो स्वाभाविक ही है की हिन्दी साहित्य के अध्यन में उनके समान परिपक्वता शायद ही कोई ओर शिक्षक रखता हो। उन दिनों मुझे हिन्दी में लेख लिखने में बहुत आनंद आता था। प्रतिदिन घर लौटकर मैं कभी कवितायें लिखता तो कभी अपने एक महान लेखक बन्ने के सपने देखता। थोड़ा ओर बड़ा हुआ तो महसूस हुआ की हिन्दी के क्षेत्र में जाना यूँ तो मुझे खूब लुभाता लेकिन जीवन के निर्वाह के लिये आवश्यक पैसे शायद न आ पाते। ओर फिर मैं बचपन से ही, ज़्यादा तो नही, लेकिन थोड़ा महत्वकांक्षी अवश्य था। केवल निर्वाह मात्र मेरा लक्ष्य होता तो मैं खुशी खुशी उसी क्षेत्र में पाँव जमाता परन्तु ज़्यादा पैसा कमाने की लालसा कब हिन्दी प्रेम को पीछे धकेल कर मेरे ऊपर सवार हो गई पता नही चला।

आज देश में हिन्दी की स्थिति को देखकर दुःख भी होता है, पछतावा भी। दुःख इसलिए क्योंकि जिस देश की मात्रभाषा का गौरव पाने पर यह भाषा कभी इतराती होगी, उसी देश का एक बड़ा वर्ग आज इस भाषा से बंधन छोड़ चुका है। इससे ज़्यादा पीधित करता है यह सच की एक बड़ा, साख ओर रसूख वाला, अखबारों ओर परदे पर चकाचौंध से पेश किया जाने वाले लोगो का समूह हिन्दी में अपनी विफलता के बारे में बताते हुए मन ही मन आनंदित हो उठता है, ओर एक बेशर्म हसी इस विफलता पर नाज़ होने का सबूत देती है। धीरे धीरे ये विचार लोगों के मन में घर करता जा रहा है की समाज के ऊंचे पायदानों में उठाना बैठना है तो हिन्दी से किनारा कर लेने में ही भलाई है। अपने ही देश में हिन्दी की यह दुर्गति अत्यन्त चिंताजनक है, पर इसके लिए जिम्मेदार भी हम ही हैं। डर इस बात का नहीं है की हिन्दी समाप्त हो जायेगी – वो इसलिए की करोडो हिन्दी बोलने वालों के लिए अन्य भाषाओ से अवगत होने का कोई साधन है ही नही; परन्तु इतना अवश्य है की अच्छे साहित्य से हिन्दी वंचित रह जायेगी, जिसकी वह एक समय जननी हुआ करती थी। अंग्रेजी में तो आज भी बहतरीन साहित्य लिखा जा रहा है, लेकिन पशचिमिकरण की होड़ में हिन्दी साहित्य ने एक गहरी चोट ली है। ऐसे में भारत को चाहिए की वे फ्रांस ओर रशिया जैसे देशो से सीख ले, जो आज के विश्व्यापी अंग्रेजीकरण के बावजूद अपने साहित्य को संभाले ही नही हुए, अपितु उसे रोज़ नई ऊंचाइयो तक ले जाने के लिए प्रयासरत हैं।

जाते जाते अपने पसंदीदा कवि रामधारी सिंघ ‘दिनकर’ की कुछ पंक्तियों के साथ आज्ञा लेता हूँ। संयोग ही है, कि यूँ तो ये पंक्तियाँ कर्ण (महाभारत) के मुख से प्रस्तुत की गई हैं, लेकिन अपनी जड़ो से अनजान आज के भ्रमित युवा-वर्ग की व्यथा भी ये खूब सुनाती हैं। शायद उन्हें आने वाले कल का आभास हो चुका था ॥

मैं उनका आदर्श, कहीं जो व्यथा न खोल सकेंगे ।
पूछेगा जग उनसे, किंतु, पिता का न नाम न बोल सकेंगे ,
इस निखिल विश्व में जिनका कहीं कोई अपना न होगा ,
दिल में लिए उमंग जिन्हें चिर-काल कलपना होगा ....

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