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Monday, January 21, 2019

अफ़सोस

तजुर्बों में खुद को यूँ घोला तो था, खुद से अमूमन ये बोला तो था
खूब तन्हाई में खालीपन है, खला है, फिर भी बदतर है इश्क़, दूर रहना भला है

था भरोसा हमें हो गए हैं सयाने, नाजाने फिर दिल आज कैसे जगा है
है डरता बहुत फिर भी अपनी चलाता, अफ़सोसन मुझे इश्क़ होने लगा है 

Saturday, January 19, 2019

खोज

किसी खोए हुए किस्से के खोए हुए बंज़ारे सा
खोया हुआ हूँ ख़्वाबीदा ख़यालों में इस तरह
जैसे सालों पुराना ऐब कोई खुदबख़ुद खो जाता है

Tuesday, February 28, 2017

बेमिजाज़ी

जब से तू मेरा ना रहा 
किसी से कोई गिला ना रहा 

नौकरी-पेशा, गाडी, घर-मकान 
हसरतों का ये सिलसिला न रहा 

न रहा शौक़ घर को आने का 
बाहर का भी काफिला न रहा 

Saturday, December 24, 2011

Teacher ?

वक्त इतना भी मेहरबान मुर्शिद तो नहीं है
करूं मैं एहतियात रोज़ ऐसी जिद तो नहीं है

नादां न वो बच्चा जो कहे वालिद हद-आलिम
हर सांच उभारी जाए, ज़रूरी तो नहीं है

हर ख़ता की तसल्ली कि भूल भी इक सबक है
हर सबक का यूँ सीखना वाजिब तो नहीं है

वस्ल को चला है जो राज़-ऐ-गुलशन की ले तलब
वो है तो कोई फलसफी ; समझदार नहीं है

Friday, March 6, 2009

The Stoic

किसी बात का ग़म मुझे अब क्यों नहीं होता
सब रोते हैं जहाँ मैं वहां क्यों नहीं रोता

क्या खून है ये आज भी या बन गया पानी
कितना उबालो इसको, मैं आपा नहीं खोता

मैं झूठ के आंसू तो बहाने को बहा दूँ
इन आंसुओं से दिल कभी हल्का नहीं होता

बड़े युन्ही लड़ते यहाँ बच्चे युन्ही हँसते
सब ऐसा ही रहता यहाँ गर मैं नहीं होता

कोहराम है, इस शहर की अब नींद है हराम
मैं सो गया थक कर जहाँ कोई नहीं सोता

कल और आज

क्या कल सैलाब आया था या मौसम में मोहब्बत थी
कोई मुझको बता दीजे कि कल क्या मेरी हालत थी

मुझे अब याद ना आए, मेरी बद-हवासी का मंज़र
क्या मेरी जुस्तुजू में कोई जुर्रत, कुछ ज़लालत थी

के घंटो से टंगा हूँ फ़ोन की तारों पे मैं लेकिन
सुबह सिर्फ़ घंटियाँ, अब उसकी मम्मी की वकालत थी

Saturday, October 11, 2008

धुंआ

कल रात बैठे बैठे सुबह हो गई
मानो पिंजरे से चिड़िया धुंआ हो गई

ये समझाया, माना बहुत कुछ सितम है
चलो छोड़ दें, जो गई सो गई

जो सालों में उगती है पेडों की लकड़ी
कट के भी तो चूल्हे की जां हो गई

ये बतलाया ख़ुद को की दुनिया में जब भी
कोई बात बिगड़ी , कोई हो गई

कभी चाँद रोता है दागों को अपने ?
कब रोता है सूरज की छाँ खो गई

अब कल को न रोयें, अगर यह करें तो
जो कल तक थी दिक्क़त, दुआ हो गई

फिर रात याद आया जो वीरों का जज़्बा
जोश-ऐ-दिल की तभी इन्तेहाँ हो गई

ये करना है मुमकिन, वो कर देंगे अब तो
ऐसी कसमें हजारों जुबां हो गई

कई बात सोची यूँ तो कल रात हमनें
जो सुबह हो गई , सब धुंआ हो गई

Sunday, September 24, 2006

main shayar to nahin

Hurray!! Midsemester exams are now over and done with. Initially I was a little apprehensive about how well will I be able to perform because I began the preparations a lot later than other folks. But to my utter surprise I hardly faced any problem in any exam because of that.

Following is my first attempt at writing a nazm. With my long standing fascination for ghazals, I, well knew writing them would be something I'd definitely do, even if only as a hobby. It has always been like this with me, the innate desire to do by myself what I appreciate others doing. In the past this character of mine has led me to making sketches, writing hindi poems, writing short stories, playing certain sports, doing imitations, even starting this blog and now writing ghazals. So looking back, I think this characteristic of mine has only given me something or the other, it never takes from me anything except a little bit of time which I would have wasted in some futile timepass activity anyway. Now that the exams are over, I had all the time to make a sincere first attempt, so I wrote this one today.


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''नम आँखें .....''
इतनी सख्ती तो न बरतों
के नमी आँखों में छा जाए

सच जो है, होता है कड़वा
ये जानते हैं हम ,
इसको इतना न पिलाओ के समझ
राज़ -ऐ -गुलशन आ जाए

इतनी सख्ती तो न बरतों
के नमी आँखों में छा जाए

अब तो यारों से मिलने में
भी रहती है शिकन ,
लगता है डर के कब किस बात
कोई यार खफा हो जाए

इतनी सख्ती तो ना बरतों
के नमी आँखों में छा जाए

तुमको भी तो कभी मेरी
यादें ज़रा आती होंगी,
सोचता हूँ तेरी यादों के सिवा
तू भी कभी आ जाए

इतनी सख्ती तो न बरतों
के नमी आँखों में छा जाए

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