जब हम में था क़रार, मिलती थी हफ्ते एक बार
अब जो कुछ भी न रहा, अब क्यों रोज़ आती हो?
अब तो फ़िराक को भी गए हो चली हैं मुददतें
ये कोई सलात तो नहीं जो सुभ-ओ-शाम गाती हो !
शब भर मुस्कुरा के कहती हो माफ़ किया छोड़ो भी
आँख खुलते ही मगर पल में चली जाती हो।
अब जो कुछ भी न रहा, अब क्यों रोज़ आती हो?
अब तो फ़िराक को भी गए हो चली हैं मुददतें
ये कोई सलात तो नहीं जो सुभ-ओ-शाम गाती हो !
शब भर मुस्कुरा के कहती हो माफ़ किया छोड़ो भी
आँख खुलते ही मगर पल में चली जाती हो।
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