Wednesday, May 20, 2020

Tree

There is a tree outside the window from where I sit while working at home amidst the coronavirus lock-down. I do not know what tree it is, I am no botanist. I don't feel the urge to know, either.

A month ago it was all barren. It evoked the beauty of a radiant sage: simple, sufficient, timeless.

Then it bore its leaves lightly, until about a week ago. When the spring winds blew, the leaves trembled delicately, like vulnerable pets who must be handled with great care.

Now it is dense, and reflects the light shone on it by the sun in short-lived glitters. They remind me of afternoons spent playing outside as a kid, observing these patterns of here-now-gone-now light with the wonder and attention of someone who notices something for the first time.

The tree was beautiful each time. In a few months it will be its most good-looking, waving about almost proudly in its colorful autumn glory.

And then be barren again, beautiful, once again.

Wednesday, May 6, 2020

योगश्चित्तवृत्तिनिरोध:

#1.2 योगश्चित्तवृत्तिनिरोध:
हिंदी: मन के हर समय बदलते रूपों को स्थिर करना ही योग है
English: Yoga is stilling the changing states of the mind

यह शायद पतंजलि योगसूत्र का सबसे प्रसिद्द सूत्र है। ये छोटी सी पंक्ति है, पर यहां पर हमें कुछ बुनियादी सिद्धांत साफ़ कर लेने चाहिए, इसलिए आज का उल्लेख थोड़ा लम्बा होगा। भगवद् गीता में 4 प्रकार के योग का वर्णन है: कर्म योग (हर कार्य को निष्ठा और निस्वार्थ भाव से करना), भक्ति योग (भगवान से प्यार करना), ज्ञान योग (सत्य को जिज्ञासा और अध्यन से जानना) और राज-योग / ध्यान-योग / सांख्य-योग  (एकाग्र आत्मशोध या अंग्रेजी में meditation). पतंजलि योगसूत्र में जब भी योग की बात होती है, तो तात्पर्य ध्यान योग से है।  प्राचीन भारत में सनातन धर्म की जो शाखाएं थी, उनमे वेदांत से भी प्राचीन मानी जाती है "सांख्य", जिसका उदय ऋषि कपिल से हुआ, और चूंकि योग (ध्यान योग) इस शाखा से निकला, इसलिए ध्यान योग को सांख्य योग भी कहते हैं। आपको शायद रूचि हो की इन शाखाओं में क्या अंतर था, क्या इनके अलग अलग भगवान् थे? नहीं, वे शाखाएं तो कई शताब्दियों बाद आयी, पौराणिक काल में।  उससे पहले वदिक काल में जो शाखाएं थी - उनमे फर्क था उनकी अपनी अपनी सत्य के वर्णन को लेकर - आखिर इस सृष्टि की, इस जीवन का, और सबसे महत्वपूर्ण हमारे अंतर्मन का सत्य क्या है - इस विषय पर इन शाखाओं की अलग अलग धारणा थी।  इनमें बहुत कुछ एक सा था, परन्तु कुछ सूक्ष्म अंतर भी थे।  कुछ परेशानी इनकी अपनी अलग अलग शब्दावली से भी आती है।  मसलन, वेदांत में सृष्टि के सत्य को आत्मन और माया में बांटा है, तो सांख्य और योग ने पुरुष और प्रकृति में बांटा है। पुरुष और आत्मन लगभग एक से हैं, पर पूरी तरह नहीं, ऐसे ही माया और प्रकृति में भी थोड़ा फर्क है, हालांकि समानता भी बहुत है। खैर, ये बस इस शाखा के परिचय के लिए, जिससे योग का जन्म हुआ। योग की शाखा ने सांख्य के वर्णन को सही तो माना, परन्तु योग की शाखा का विशेष प्रयास था उन तरीको के विकास में जिससे ये सत्य आप स्वयं अनुभव कर सके।

प्रकृति वो पदार्थ (matter) है जिससे ये भौतिक (material) सृष्टि बनी है, और पुरुष वह आत्मा जिसमे वाकई प्राण हैं, पुरुष सत्य है, पुरुष असलियत है।  पुरुष और प्रकृति के मिलने से ही इस सृष्टि का खेल चलता है। प्रकृति में जो कुछ भी वो तीन गुणों से बना है: सत्व, राजस, और तमस।  जो जितना अधिक सूक्ष्म है, जैसे हवा, बुद्धि, आग, उसमे उतना सत्व ज़्यादा और तामस कम है, और जो जितना ठोस या स्थूल है, जिसे आप भौतिक पैमाने पर माप सकते हैं, जैसे पत्थर, उसमें उतना ज़्यादा तमस।  असल में जो भी आप अपने इन्द्रियों से महसूस कर सकते हैं, वह प्रकृति का हिस्सा है।  योग का पूरा प्रयास आपको स्थूलता से सूक्ष्मता की ओर, तमस से सत्व की और ले जाने का है। अंततः उद्देश्य है पुरुष का आभास कराने का, जो की सत्व से भी परे है (पुरुष निर्गुण है, उसमें कोई गुण नहीं, सत्व भी नहीं), पर जो कुछ प्राकृतिक है उसमे पुरुष के सबसे समीप जो कुछ हैं, वह सब सत्व-प्रधान है। सांख्य के अनुसार पुरुष और प्रकृति के border पर हैं: बुद्धि, फिर अहंकार, फिर मनस।  बुद्धि बहुत सूक्ष्म, बहुत सत्व-प्रधान है, परन्तु वो भी प्रकृति में है, पुरुष नहीं। मनस के बाद आती हैं इन्द्रियां (sense organs), और उसके बाद हाथ, पैर, बाकी शरीर (motor organs). हमारी इन्द्रियाँ जो भी बाहरी दुनिया की वस्तुएं या घटनाएं अनुभव करती हैं, मन उन अनुभवों में विलीन रहकर उनको organize करता है, इन वस्तुओं को उनके function/भूमिका के आधार पर समझता है. आँखें लकड़ी देखती है, मन तय करता है ये लकड़ी एक कुर्सी है, वो लकड़ी एक लाठी। अहंकार हमारे चित्त का वो हिस्सा है जिससे हमें यह आभास होता ही की यह लकड़ी "मैंने" देखी है, की मैं एक चीज़ हूँ, अपने आप में एक चरित्र। बुद्धि हमारे चित्त का वो हिस्सा है जो हममें विश्लेषण करने की, फैसले लेने की ताकत देता है, बताता है की क्या सही है, क्या गलत, क्या अच्छा है, क्या बुरा।

बुद्धि में सत्व बहुत है, जिसके कारण वो लगभग transparent है, और पुरुष उससे होता हुआ अहंकार वाले हिस्से से मानो आईने की तरह प्रतिबिंबित (reflect) होता है - इसलिए हमें हमारे वास्तविक होने का आभास होता है। हमारी बुद्धि हमें पुरुष के निकट ले जा सकती है, परन्तु योग के अनुसार समस्या ये है की मन/मनस बहुत चंचल है, और चूंकि वो स्थिर नहीं रहता, और चूंकि बुद्धि उसी चीज़ पर विचार कर सकती है जो मनस उस तक लाता है, हमारी बुद्धि हमें पुरुष (सत्य) के पास ले जाने में असमर्थ है. इसीलिए, उपाय है मन को स्थिर करना।   

Monday, May 4, 2020

अथ योगानुशासनम

पिछले कुछ सालों में कुछ बेहतरीन किताबें पढ़ने की खुशकिस्मती हुई, और उनकी बातों के बारे में बहुत अच्छे और दयालु स्वामी सर्वप्रियनंद से सीखने समझने को और चर्चा करने को मिला। आने वाले समय में जहां तक हो सके मैं आसान शब्दों में उन किताबों की बातों को फेसबुक के स्टेटस मैसेज पर लिखूंगा। जहां आसान शब्द संभव नहीं होगा, वहां अंग्रेजी शब्द जोड़ दूंगा। इन फेसबुक स्टेटस मेसेजस में अनुवाद भी होगा और उल्लेख भी।  श्लोक वाली किताबें, जैसे भगवदगीता, को कुछ हद तक सिर्फ अनुवाद से समझने की चेष्ठा की जा सकती है, परन्तु सूत्र वाली किताबें, जैसे बदारायण के ब्रह्मसूत्र या फिर पतंजलि के योगसूत्र, उन्हें केवल अनुवाद से समझना मुश्किल ही नहीं, हानिकारक भी है।  प्राचीन समय में सूत्रों का इस्तेमाल बहुत अधिक वर्णन को बहुत ही छोटे में कह देने के लिए होता था, सूत्र के हर शब्द में अपने आप में एक पूरी कहानी होती थी। अक्सर ये साधको के याद रखने की सहूलियत के लिहाज़ से अतिलघु (succinct) किये जाते थे, ताकि उन्हें कंठस्थ (memorize) हो पाएं, लेकिन उनसे ये अपेक्षा (expectation) ज़रूर की जाती थी कि हर शब्द के पीछे के वर्णन का अभ्यास उन्हें इतना हो की सूत्र के हर शब्द के स्मरण से उन्हें उस शब्द के पीछे की सारी बात याद आ जाए।  खैर, ये तो हुई सूत्रों और श्लोकों के फर्क की बात। अब जल्दी ही हम पतंजलि योगसूत्र से शुरुआत करेंगे।  यदि ये प्रयास सफल रहा तो आने वाले समय में भगवदगीता, विवेकचूड़ामणि, अपरोक्षानभूति और कुछ उपनिषदों तक भी पहुंचेंगे, देखते हैं।

#1 .1 "अथ योगानुशासनम"
हिंदी: "और अब, योग"
English: "And now, the discipline of Yoga"

अनुवाद के नाम पर तो इतना ही है। व्यास, शंकर और विज्ञानभिक्षु ने इस छोटे से सूत्र पर बहुत कुछ कहा है। खैर, किसी किताब की शुरुआत ही "और अब.." से कैसे हुई? यह पढ़कर तो ऐसा लगता है की किसी चली आ रही बात को जारी रखते हुए आगे बढ़ाया  जा रहा है। क्या इस सूत्र से पहले भी कुछ सूत्र थे इस किताब में जो कहीं खो गए?

दरअसल, पतंजलि ने ऐसी शुरुआत की आपको सोचने पर मजबूर करने के लिए।  जीवन में आपने बहुत सी योजनाएं बनायीं, घाट घाट का पानी पिया, बहुतों से परामर्श लिया। ज़रूर आपने ये सब किसी न किसी प्रकार की बेहतरी के लिए किये, परन्तु क्या आपको फिर भी लगा की कुछ छूट गया? आपने बहुत कुछ पाने की कोशिश की, शुरू में असफल रहे पर अपने संघर्षो से आपने अपने आप को समर्थ बनाया और आखिरकार अपने उद्देश्यों को प्राप्त भी कर लिया, लेकिन क्या उस सफलता के बाद आप संतुष्ट हो गए या आप को लगा की इस सब क्या क्या अर्थ था? आपने तरह तरह की जतन किये, तरह तरह की उपलब्धियां हासिल की की, तरह तरह की वस्तुएं प्राप्त की, तरह तरह की तारीफें बटोरी, तरह तरह की जगह देखी , खाना खाया, खेल खेले, तो अब और आखिर क्या? इसीलिए: "और अब, योग".