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Saturday, June 6, 2020

वृत्तिसारूप्यम इतरत्र

#1.4 वृत्तिसारूप्यम इतरत्र
हिंदी: बाकी समय, यह मन की वृत्तियों में समाया रहता है
English: At other times, it is absorbed in the changing states of mind.

मन की वृत्तियाँ यानी की भावनाएं, विचार, अंतर्द्वंद आदि: मन इन्हे आत्मा के समक्ष प्रस्तुत करता है. आत्मा, जिसमे चेतना की शक्ति है, इन वृत्तियों पर प्रकाश डालती है, इनसे अवगत होती है. अतः हम इन भावनाओ से अवगत होते हैं, और मन-बुद्धि को श्रेय देते हैं, या फिर यूँ कहें, की मन बुद्धि को ही अपना सत्य, अपनी आत्मा मानते हैं. और चूंकि मन का तो स्वभाव ही है बदलते रहना, हमें लगता है की हम स्वयं (यानी, हमारी आत्मा) बदलते रहते हैं. इस स्थिर, निश्चल आत्मा को अस्थिर मन के रूप में जानना, इसे योग में "अविद्या (Avidya)" कहा गया है, और अविद्या कारण है जीव के सम्सार (https://berkleycenter.georgetown.edu/essays/samsara-hinduism) के बंधन में बंधे रहने का, प्रकृति से उलझे रहने का. वचस्पति मिश्र इसके उल्लेख में इसकी तुलना एक व्यक्ति से करते हैं, जो एक मैले आईने में अपना प्रतिबिम्ब देख कर खुद को ही मैला समझता है, और परेशान रहता है.

इस प्रकार से अविद्या का वर्णन पतंजलि योग से भी पुराना है. चंदयोग उपनिषद् में इंद्र देवता और विरोचन असुर को पता चलता है की जिसने आत्मा को जीत लिया वो हमेशा के लिए सब कुछ जीत गया. वो दोनों ऋषि प्रजापति के पास पहुँचते हैं यह जानने के लिए की आत्मा को कैसे पाया जाए. ऋषि जानते थे की इनकी नियत भौतिक दुनिया पर वर्चस्व प्राप्त करने की है, इसीलिए परिहास के लिए वे उन्हें अपने लक्ष्य हेतु पानी के कटोरे में देखने को कहते हैं. विरोचन असुर कटोरे में अपना शरीर देख कर संतुष्ट हो जाता है. इंद्र इस उत्तर से असंतुष्ट, ऋषि से पूछते हैं, 'अगर यही आत्मा है तो व्यर्थ है, तो ये तो शरीर के मरने पर मर जायेगी।' इसके बाद ऋषि प्रजापति इंद्र को परत दर परत आत्मज्ञान की सही विधि समझाते हैं.

यह अविद्या ही कारण है की आत्मा, जो वास्तव में सदा शुद्ध और एक सी है, कभी खुश, कभी दुखी, कभी भ्रमित मालूम होती है - हालांकि ये सब तो मन की वृत्तियाँ हैं. राजा भोज इसके उल्लेख में एक झील में प्रतिबिंबित चाँद का उदाहरण देते हैं, जो हमेशा हिलता डुलता सा नज़र आता है, जबकि यह चाँद नहीं, झील का जल है जो हवा से हिल रहा है. जहां एक तरफ चेतना का श्रेय मन-बुद्धि को देना भ्रम है, वहीँ दूसरी तरफ ऐसा मानना की मैं (यानी आत्मा) ये बात सोच रहा हूँ, या वो कार्य कर रहा हूँ, ये भी भ्रम है. सोचने वाला तो मन-बुद्धि है, और करने वाला शरीर है, ये दोनों ही प्रकृति का हिस्सा हैं, पुरुष/आत्मा नहीं। आत्मा इन सब की साक्षी है। योग में आप जब बाहर के सब कार्य, विचार, आदि एकाएक रोक देते हैं, तब ये आभास प्रबल होता की आप तो अब भी हैं; जब मन के विचार, भावनाएं, इनसे आप अवगत नहीं हैं, किसी कार्य से अवगत नहीं हैं, पर अपने होने से अवगत हैं, इसका क्या अर्थ है. आप अगर अब भी हैं, तो आप इन सब से परे हैं, केवल इनको प्रकाशित करने वाली चेतना.

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यहाँ पर एक और प्रैक्टिकल में काम आने वाली बात: अभी तक जिसे हम मन-बुद्धि कह कर एक वस्तु की तरह समझ रहे हैं, उसकी भी कई परतें हैं, जो वैसे तो ध्यान (meditation) से ही बारीकी से समझ आएंगी, हालांकि बात को संक्षेप में रखा जाए तो किसी भी चीज़ के ज्ञान में, एक द्रष्टा होता है, एक द्रिश्य, और एक दूरबीन (ये योग विद्या के शब्द नहीं हैं, केवल संक्षेप में समझाने के लिए इस शब्दावली का प्रयोग कर रहा हूँ). ध्यान करते समय आप इस पर विचार से अपने भीतर झाँक सकते हैं. इससे मन-बुद्धि की परतें भी नज़र आती हैं, उनका उल्लेख आगे:

stage 1: मन (द्रष्टा) इन्द्रियों (दूरबीन) द्वारा बाहर की वस्तुओँ, आवाज़ों (द्रिश्य) से अवगत है 
stage 2: अहंकार* मन द्वारा इन्द्रियों (sense organs such as eyes, ears..) से अवगत है
stage 3: बुद्धि अहंकार द्वारा मन से अवगत है
stage 4**:  बुद्धि directly नहीं परन्तू stage 3 के निष्कर्ष से अनुमान*** (inference) द्वारा अहंकार से अवगत हैं
और ध्यान लगाने पर:
stage 5: "आप" बुद्धि द्वारा अहंकार से अवगत हैं
stage 5 के आभास से अवगत कराना भी बुद्धि का ही कार्य है, इस प्रकरण में यह बुद्धि का अंतिम कार्य है. इसे विवेक-ख्याति कहा गया है, इसके बाद बुद्धि जान जाती है की वह आपका परम सत नहीं है. इसके बाद,
stage 6: आप/आत्मा  बुद्धि से अवगत हैं, अपने शुद्ध रूप में है.

* यहां अहंकार का अर्थ घमंड नहीं है, अहंकार का अर्थ है "अपने कार्यों, शरीर, विचारों को जोड़कर इस सब को एक स्वाधीन इकाई (individual entity), "मैं" की तरह प्रस्तुत करने की शक्ति।
** इसके लिए अहंकार पर ध्यान करने की सलाह दी गयी है
*** चूंकि अनुमान (inferential reasoning) भी बुद्धि की ही शक्ति है, आप stage 4 को ऐसे भी लिख सकते हैं: बुद्धि बुद्धि द्वारा अहंकार से अवगत है

Thursday, June 4, 2020

तदा द्रष्टु स्वरूपेवस्थानम

#1.3 तदा द्रष्टु स्वरूपेवस्थानम
हिंदी: तब, पुरुष/आत्मा अपने शुद्ध रूप में वास करती है
English: Then, the seer abides in his own true nature

पिछले सूत्र में अपनी भावनाओं और विचारों पर पूर्ण अंकुश लगाने कि बात की गयी. इसके बाद ये सवाल स्वाभाविक ही है की क्या ऐसा करने का मतलब जीवन त्यागना तो नहीं, चूंकि हमारे जीवन का सम्पूर्ण अनुभव तो हमारे मन के ख्यालों से ही हमें होता है? या फिर क्या पतंजलि एक जड़ स्थिति की कल्पना कर रहे हैं, एक coma के जैसी स्थिति की? इसलिए, इस सूत्र में पतंजलि आपको भरोसा दिलाते हैं की ऐसा नहीं है. वे कहते हैं की वास्तव में, योग द्वारा पायी गयी स्थिति में आत्मा अपने शुद्ध रूप में वास करती है. इसको समझने के लिए हमें पहले ये जान लेना चाहिए की जब वेदांत अथवा योग आत्मा/पुरुष की बात करते है, तब वो आखिर किस चीज़ की बात कर रहे होते है. इस पर चर्चा करते हैं:

जब आप अपनी बात करते हैं, मसलन, जब मैं कहता हूँ की "मैं सुशांत हूँ." तब वो क्या चीज़ है, जिसे मैं सुशांत शब्द से सम्भोदित कर रहा हूँ?

अधिकांशतः जब हम ऐसा कहते हैं तो हमारा अभिप्राय होता है अपने शरीर से, अपने मन-बुद्धि से और उसके विचारों से.

फ्रांस के मशहूर philosopher Descartes ने कहा था, "I think, therefore I am." ऐसा कहकर उन्होंने ये कल्पना की कि मेरा मन/विचार ही मेरे होने का प्रमाण है. जब मैं सोच नहीं रहा होता, जैसे की deep sleep के दौरान, तब मुझे अपना होना भी ज्ञात नहीं होता। अतः सरल शब्दों में कहा जाए तो: मैं कौन हूँ? मैं "मेरा मन / मेरे विचार" हूँ, "मेरा शरीर" मैं नहीं हूँ, मेरा शरीर बस एक वस्तु के समान है.

अभी आपने देखा की Descartes का उत्तर एक आम आदमी के कल्पना से थोड़ा परे था. योग और वेदांत का उत्तर इससे भी एक कदम परे है. इनके अनुसार, जब आप कुछ देखते हैं, तो उस में "दो" के होने का पता चलता है, एक देखने वाले, आप, और एक वो जिसे आप "देख" रहे हैं. यहां पर "देख" शब्द का तात्पर्य केवल आँखों द्वारा देखने से नहीं हैं, दरसल अगर आप किसी चीज़ के होने से अवगत हैं, तो एक आप हैं जो अवगत हैं, और एक वो है आप जिससे अवगत हैं. इस सन्दर्भ में "देख" शब्द को समझिये।

क्या आप अपने कपड़ें देख सकते हैं? हाँ, इसलिए यहाँ 2 के होने का पता चलता है, और निश्चित ही वे कपड़े (द्रिश्य), वे आप नहीं हैं. यहां द्रिश्य (दिखने वाला) है 'कपड़े' और द्रष्टा (देखने वाला) है 'आपकी आँख'. तो क्या आप आपकी आँख/आपका शरीर हैं? अपने आप से पूछिए, क्या आप अपनी आँख के होने से अवगत हैं? हाँ, आपका दिमाग आपकी आँख से आपको अवगत कराता है. इसलिए आँख/शरीर तो हुआ 'द्रिश्य' (अतः आप अपनी आँख / अपना शरीर नहीं हैं) और आपका दिमाग/मन हुआ 'द्रष्टा'।  तो क्या आप अपना दिमाग/मन हैं? इस पर Descartes का उत्तर है "हाँ". परन्तु योग और वेदांत कहता है कि फिर गौर कीजिये, क्या आप अपने दिमाग से अवगत हैं?

अभी तक की सारी व्याख्या छोड़ दें, यदि मैं आपसे पूछता हूँ, "क्या आपको पता है की आपकी बुद्धि क्या विचार कर रही है, आपका मन क्या महसूस कर रहा है?" तो क्या आप "हाँ" नहीं कहेंगे? अर्थात आपकी बुद्धि और मन खुद हुए द्रिश्य, और "आप" हुए द्रष्टा। इस "आप" को योग और वेदांत 'पुरुष' / 'आत्मा' कहते हैं। जिस प्रकार आप के कपड़े केवल एक वस्तु है, उसी तरह, यदि आप अपने आत्मा के द्रिष्टीकोण से देखें, तो आपका शरीर और मन भी केवल वस्तु के समान, और आपकी आत्मा हैं आप।

इस समय, एक और रोचक सवाल यह है की जिस तरह आँख देखती है, कान सुनते हैं, उसी तरह, आत्मा क्या करती है? इसका उत्तर ऊपर की चर्चा में ही है. आत्मा आपके मन से अवगत है (और फलस्वरूप उस सब से अवगत है जिससे आपका मन अवगत है), यह आपके मन-बुद्धि को प्रकाशित करती है, यह "चेतना" ही इस आत्मा की शक्ति है. अब आप इस सूत्र को दोबारा पढ़िए तो आप जानेंगे की उसका अर्थ क्या है: योग के द्वारा "आप" अपने असली रूप में वास कर पाएंगे।

अब सवाल उठता है, आखिर असली रूप में वास करने का क्या मतलब है, क्या अभी, इस समय, आत्मा अपने सही स्वरुप में नहीं है? व्यास इस सूत्र की व्याख्या में कहते हैं की आत्मा तो सदैव ही अपने शुद्ध रूप में वास करती है, दरअसल पतंजलि का मतलब यह है कि जीव को लेकिन यह भ्रम होता है की आत्मा उसके मन/शरीर में हैं (या सरल शब्दों में कहा जाए तो जीव को लगता है की उसका मन और शरीर ही वो है), इसलिए ऐसा कहा जा सकता है की जब तक ये भ्रम है तब तक आत्मा अपने असली स्वरुप में नहीं है. व्यास आत्मा की  तुलना एक कांच से करते हुए समझाते हैं की जिस प्रकार एक लाल वस्त्र पर रखा हुआ कांच खुद लाल प्रतीत होता है, उसी प्रकार मन, बुद्धि और शरीर को प्रकाशित करने वाली आत्मा खुद ही मन, बुद्धि और शरीर के रूप में महसूस होती है, हालांकि ये एक भ्रम है.

आत्मा चेतना है, प्रकाशित करना,अवगत कराना तो इसका स्वभाव ही है, तो फिर यदि यह अपने असली स्वरुप में ही रहेगी, मन-शरीर को प्रकाशित नहीं करेगी, तो फिर यह किसे प्रकाशित करेगी, किससे अवगत होगी?

तब ये खुद से अवगत होगी, और यही योग का लक्ष्य है.

Wednesday, May 6, 2020

योगश्चित्तवृत्तिनिरोध:

#1.2 योगश्चित्तवृत्तिनिरोध:
हिंदी: मन के हर समय बदलते रूपों को स्थिर करना ही योग है
English: Yoga is stilling the changing states of the mind

यह शायद पतंजलि योगसूत्र का सबसे प्रसिद्द सूत्र है। ये छोटी सी पंक्ति है, पर यहां पर हमें कुछ बुनियादी सिद्धांत साफ़ कर लेने चाहिए, इसलिए आज का उल्लेख थोड़ा लम्बा होगा। भगवद् गीता में 4 प्रकार के योग का वर्णन है: कर्म योग (हर कार्य को निष्ठा और निस्वार्थ भाव से करना), भक्ति योग (भगवान से प्यार करना), ज्ञान योग (सत्य को जिज्ञासा और अध्यन से जानना) और राज-योग / ध्यान-योग / सांख्य-योग  (एकाग्र आत्मशोध या अंग्रेजी में meditation). पतंजलि योगसूत्र में जब भी योग की बात होती है, तो तात्पर्य ध्यान योग से है।  प्राचीन भारत में सनातन धर्म की जो शाखाएं थी, उनमे वेदांत से भी प्राचीन मानी जाती है "सांख्य", जिसका उदय ऋषि कपिल से हुआ, और चूंकि योग (ध्यान योग) इस शाखा से निकला, इसलिए ध्यान योग को सांख्य योग भी कहते हैं। आपको शायद रूचि हो की इन शाखाओं में क्या अंतर था, क्या इनके अलग अलग भगवान् थे? नहीं, वे शाखाएं तो कई शताब्दियों बाद आयी, पौराणिक काल में।  उससे पहले वदिक काल में जो शाखाएं थी - उनमे फर्क था उनकी अपनी अपनी सत्य के वर्णन को लेकर - आखिर इस सृष्टि की, इस जीवन का, और सबसे महत्वपूर्ण हमारे अंतर्मन का सत्य क्या है - इस विषय पर इन शाखाओं की अलग अलग धारणा थी।  इनमें बहुत कुछ एक सा था, परन्तु कुछ सूक्ष्म अंतर भी थे।  कुछ परेशानी इनकी अपनी अलग अलग शब्दावली से भी आती है।  मसलन, वेदांत में सृष्टि के सत्य को आत्मन और माया में बांटा है, तो सांख्य और योग ने पुरुष और प्रकृति में बांटा है। पुरुष और आत्मन लगभग एक से हैं, पर पूरी तरह नहीं, ऐसे ही माया और प्रकृति में भी थोड़ा फर्क है, हालांकि समानता भी बहुत है। खैर, ये बस इस शाखा के परिचय के लिए, जिससे योग का जन्म हुआ। योग की शाखा ने सांख्य के वर्णन को सही तो माना, परन्तु योग की शाखा का विशेष प्रयास था उन तरीको के विकास में जिससे ये सत्य आप स्वयं अनुभव कर सके।

प्रकृति वो पदार्थ (matter) है जिससे ये भौतिक (material) सृष्टि बनी है, और पुरुष वह आत्मा जिसमे वाकई प्राण हैं, पुरुष सत्य है, पुरुष असलियत है।  पुरुष और प्रकृति के मिलने से ही इस सृष्टि का खेल चलता है। प्रकृति में जो कुछ भी वो तीन गुणों से बना है: सत्व, राजस, और तमस।  जो जितना अधिक सूक्ष्म है, जैसे हवा, बुद्धि, आग, उसमे उतना सत्व ज़्यादा और तामस कम है, और जो जितना ठोस या स्थूल है, जिसे आप भौतिक पैमाने पर माप सकते हैं, जैसे पत्थर, उसमें उतना ज़्यादा तमस।  असल में जो भी आप अपने इन्द्रियों से महसूस कर सकते हैं, वह प्रकृति का हिस्सा है।  योग का पूरा प्रयास आपको स्थूलता से सूक्ष्मता की ओर, तमस से सत्व की और ले जाने का है। अंततः उद्देश्य है पुरुष का आभास कराने का, जो की सत्व से भी परे है (पुरुष निर्गुण है, उसमें कोई गुण नहीं, सत्व भी नहीं), पर जो कुछ प्राकृतिक है उसमे पुरुष के सबसे समीप जो कुछ हैं, वह सब सत्व-प्रधान है। सांख्य के अनुसार पुरुष और प्रकृति के border पर हैं: बुद्धि, फिर अहंकार, फिर मनस।  बुद्धि बहुत सूक्ष्म, बहुत सत्व-प्रधान है, परन्तु वो भी प्रकृति में है, पुरुष नहीं। मनस के बाद आती हैं इन्द्रियां (sense organs), और उसके बाद हाथ, पैर, बाकी शरीर (motor organs). हमारी इन्द्रियाँ जो भी बाहरी दुनिया की वस्तुएं या घटनाएं अनुभव करती हैं, मन उन अनुभवों में विलीन रहकर उनको organize करता है, इन वस्तुओं को उनके function/भूमिका के आधार पर समझता है. आँखें लकड़ी देखती है, मन तय करता है ये लकड़ी एक कुर्सी है, वो लकड़ी एक लाठी। अहंकार हमारे चित्त का वो हिस्सा है जिससे हमें यह आभास होता ही की यह लकड़ी "मैंने" देखी है, की मैं एक चीज़ हूँ, अपने आप में एक चरित्र। बुद्धि हमारे चित्त का वो हिस्सा है जो हममें विश्लेषण करने की, फैसले लेने की ताकत देता है, बताता है की क्या सही है, क्या गलत, क्या अच्छा है, क्या बुरा।

बुद्धि में सत्व बहुत है, जिसके कारण वो लगभग transparent है, और पुरुष उससे होता हुआ अहंकार वाले हिस्से से मानो आईने की तरह प्रतिबिंबित (reflect) होता है - इसलिए हमें हमारे वास्तविक होने का आभास होता है। हमारी बुद्धि हमें पुरुष के निकट ले जा सकती है, परन्तु योग के अनुसार समस्या ये है की मन/मनस बहुत चंचल है, और चूंकि वो स्थिर नहीं रहता, और चूंकि बुद्धि उसी चीज़ पर विचार कर सकती है जो मनस उस तक लाता है, हमारी बुद्धि हमें पुरुष (सत्य) के पास ले जाने में असमर्थ है. इसीलिए, उपाय है मन को स्थिर करना।   

Monday, May 4, 2020

अथ योगानुशासनम

पिछले कुछ सालों में कुछ बेहतरीन किताबें पढ़ने की खुशकिस्मती हुई, और उनकी बातों के बारे में बहुत अच्छे और दयालु स्वामी सर्वप्रियनंद से सीखने समझने को और चर्चा करने को मिला। आने वाले समय में जहां तक हो सके मैं आसान शब्दों में उन किताबों की बातों को फेसबुक के स्टेटस मैसेज पर लिखूंगा। जहां आसान शब्द संभव नहीं होगा, वहां अंग्रेजी शब्द जोड़ दूंगा। इन फेसबुक स्टेटस मेसेजस में अनुवाद भी होगा और उल्लेख भी।  श्लोक वाली किताबें, जैसे भगवदगीता, को कुछ हद तक सिर्फ अनुवाद से समझने की चेष्ठा की जा सकती है, परन्तु सूत्र वाली किताबें, जैसे बदारायण के ब्रह्मसूत्र या फिर पतंजलि के योगसूत्र, उन्हें केवल अनुवाद से समझना मुश्किल ही नहीं, हानिकारक भी है।  प्राचीन समय में सूत्रों का इस्तेमाल बहुत अधिक वर्णन को बहुत ही छोटे में कह देने के लिए होता था, सूत्र के हर शब्द में अपने आप में एक पूरी कहानी होती थी। अक्सर ये साधको के याद रखने की सहूलियत के लिहाज़ से अतिलघु (succinct) किये जाते थे, ताकि उन्हें कंठस्थ (memorize) हो पाएं, लेकिन उनसे ये अपेक्षा (expectation) ज़रूर की जाती थी कि हर शब्द के पीछे के वर्णन का अभ्यास उन्हें इतना हो की सूत्र के हर शब्द के स्मरण से उन्हें उस शब्द के पीछे की सारी बात याद आ जाए।  खैर, ये तो हुई सूत्रों और श्लोकों के फर्क की बात। अब जल्दी ही हम पतंजलि योगसूत्र से शुरुआत करेंगे।  यदि ये प्रयास सफल रहा तो आने वाले समय में भगवदगीता, विवेकचूड़ामणि, अपरोक्षानभूति और कुछ उपनिषदों तक भी पहुंचेंगे, देखते हैं।

#1 .1 "अथ योगानुशासनम"
हिंदी: "और अब, योग"
English: "And now, the discipline of Yoga"

अनुवाद के नाम पर तो इतना ही है। व्यास, शंकर और विज्ञानभिक्षु ने इस छोटे से सूत्र पर बहुत कुछ कहा है। खैर, किसी किताब की शुरुआत ही "और अब.." से कैसे हुई? यह पढ़कर तो ऐसा लगता है की किसी चली आ रही बात को जारी रखते हुए आगे बढ़ाया  जा रहा है। क्या इस सूत्र से पहले भी कुछ सूत्र थे इस किताब में जो कहीं खो गए?

दरअसल, पतंजलि ने ऐसी शुरुआत की आपको सोचने पर मजबूर करने के लिए।  जीवन में आपने बहुत सी योजनाएं बनायीं, घाट घाट का पानी पिया, बहुतों से परामर्श लिया। ज़रूर आपने ये सब किसी न किसी प्रकार की बेहतरी के लिए किये, परन्तु क्या आपको फिर भी लगा की कुछ छूट गया? आपने बहुत कुछ पाने की कोशिश की, शुरू में असफल रहे पर अपने संघर्षो से आपने अपने आप को समर्थ बनाया और आखिरकार अपने उद्देश्यों को प्राप्त भी कर लिया, लेकिन क्या उस सफलता के बाद आप संतुष्ट हो गए या आप को लगा की इस सब क्या क्या अर्थ था? आपने तरह तरह की जतन किये, तरह तरह की उपलब्धियां हासिल की की, तरह तरह की वस्तुएं प्राप्त की, तरह तरह की तारीफें बटोरी, तरह तरह की जगह देखी , खाना खाया, खेल खेले, तो अब और आखिर क्या? इसीलिए: "और अब, योग".

Sunday, July 29, 2018

नयी नौकरी, पुरानी यादें

मई में नयी नौकरी शुरू की थी, तब से दिन भर programming ही कर रहा होता हूँ. ऐसा लगता है की पिछली company में जितनी सवा चार साल में programming की थी, उतनी यहाँ 2 महीने में कर ली है, शायद उससे भी ज़्यादा. पिछली जगह काम थोड़ा subjective था, यहाँ ज़्यादातर बस programming ही करनी रहती है. वैसे अच्छा ही है, दिमाग पर ज़्यादा ज़ोर देना पड़ता है, focused state में पूरा दिन निकल जाता है, अच्छा लगता है.

सुबह आँख खुलते ही काम पर निकल जाता हूँ, और रात घर पहुँचते फिर सोने का ही समय हो जाता है. उसके बाद भी हमेशा deadline की race में थोड़ा देर से ही code ship कर पाता हूँ. इस सब का क्या मतलब है, ये सोचना छोड़ दिया है.

मम्मी को बहुत miss करता हूँ. भगवान् उनको बहुत अच्छी सेहत दे. 

Friday, July 4, 2008

हमारी मातृभाषा

बहुत दिनों से सोच रहा था की हिन्दी भाषा में कुछ लिखू। एक हिन्दी भाषी होने के नाते मुझे आभास होता रहता की मेरा कर्तव्य है की यदा-कदा ही सही मैं हिन्दी में लिखूं अवश्य। बस इसी उधेड़बुन में था की बरसो से हिन्दी छोड़ चुका मैं, क्या इस से न्याय कर पाउँगा ? फ़िर सोचता, की क्या रखा है इस न्याय आदि के आडम्बर में, प्रयत्न तो किया जाए। इसी बीच अमिताभ के ब्लॉग पर हिन्दी में एक लेख देख कर मेरा निश्चय ओर सशक्त हो गया।

हिन्दी की बात चली है तो सोचता हूँ अब इसी विषय पर थोड़ा विचार विमर्श किया जाए । विद्यालय के दिनों में मेरी हिन्दी में बहुत रूचि रही। इसका श्रेय मेरे नवी कक्षा के अध्यापक श्रीमान डॉक्टर अशोक कुमार ‘लव’ को जाता है। हिन्दी के निबंध ओर कहानियो को बड़ी सूक्ष्मता से समझाते हुए वे पूरा ध्यान इस बात का भी रखते थे की इसके गूढ़ पहलुओं को नज़रंदाज़ न किया जाए। उनकी इस शैली से मैं बहुत प्रभावित हुआ। आज भी उन बीतें दिनों को याद करता हूँ तो एक मुस्कान मेरे चेहरे पर एकाएक आ जाती है। हमारे अध्यापक होने के साथ साथ वे एक सिद्धहस्त कवि एवं लेखक भी थे। फ़िर यह तो स्वाभाविक ही है की हिन्दी साहित्य के अध्यन में उनके समान परिपक्वता शायद ही कोई ओर शिक्षक रखता हो। उन दिनों मुझे हिन्दी में लेख लिखने में बहुत आनंद आता था। प्रतिदिन घर लौटकर मैं कभी कवितायें लिखता तो कभी अपने एक महान लेखक बन्ने के सपने देखता। थोड़ा ओर बड़ा हुआ तो महसूस हुआ की हिन्दी के क्षेत्र में जाना यूँ तो मुझे खूब लुभाता लेकिन जीवन के निर्वाह के लिये आवश्यक पैसे शायद न आ पाते। ओर फिर मैं बचपन से ही, ज़्यादा तो नही, लेकिन थोड़ा महत्वकांक्षी अवश्य था। केवल निर्वाह मात्र मेरा लक्ष्य होता तो मैं खुशी खुशी उसी क्षेत्र में पाँव जमाता परन्तु ज़्यादा पैसा कमाने की लालसा कब हिन्दी प्रेम को पीछे धकेल कर मेरे ऊपर सवार हो गई पता नही चला।

आज देश में हिन्दी की स्थिति को देखकर दुःख भी होता है, पछतावा भी। दुःख इसलिए क्योंकि जिस देश की मात्रभाषा का गौरव पाने पर यह भाषा कभी इतराती होगी, उसी देश का एक बड़ा वर्ग आज इस भाषा से बंधन छोड़ चुका है। इससे ज़्यादा पीधित करता है यह सच की एक बड़ा, साख ओर रसूख वाला, अखबारों ओर परदे पर चकाचौंध से पेश किया जाने वाले लोगो का समूह हिन्दी में अपनी विफलता के बारे में बताते हुए मन ही मन आनंदित हो उठता है, ओर एक बेशर्म हसी इस विफलता पर नाज़ होने का सबूत देती है। धीरे धीरे ये विचार लोगों के मन में घर करता जा रहा है की समाज के ऊंचे पायदानों में उठाना बैठना है तो हिन्दी से किनारा कर लेने में ही भलाई है। अपने ही देश में हिन्दी की यह दुर्गति अत्यन्त चिंताजनक है, पर इसके लिए जिम्मेदार भी हम ही हैं। डर इस बात का नहीं है की हिन्दी समाप्त हो जायेगी – वो इसलिए की करोडो हिन्दी बोलने वालों के लिए अन्य भाषाओ से अवगत होने का कोई साधन है ही नही; परन्तु इतना अवश्य है की अच्छे साहित्य से हिन्दी वंचित रह जायेगी, जिसकी वह एक समय जननी हुआ करती थी। अंग्रेजी में तो आज भी बहतरीन साहित्य लिखा जा रहा है, लेकिन पशचिमिकरण की होड़ में हिन्दी साहित्य ने एक गहरी चोट ली है। ऐसे में भारत को चाहिए की वे फ्रांस ओर रशिया जैसे देशो से सीख ले, जो आज के विश्व्यापी अंग्रेजीकरण के बावजूद अपने साहित्य को संभाले ही नही हुए, अपितु उसे रोज़ नई ऊंचाइयो तक ले जाने के लिए प्रयासरत हैं।

जाते जाते अपने पसंदीदा कवि रामधारी सिंघ ‘दिनकर’ की कुछ पंक्तियों के साथ आज्ञा लेता हूँ। संयोग ही है, कि यूँ तो ये पंक्तियाँ कर्ण (महाभारत) के मुख से प्रस्तुत की गई हैं, लेकिन अपनी जड़ो से अनजान आज के भ्रमित युवा-वर्ग की व्यथा भी ये खूब सुनाती हैं। शायद उन्हें आने वाले कल का आभास हो चुका था ॥

मैं उनका आदर्श, कहीं जो व्यथा न खोल सकेंगे ।
पूछेगा जग उनसे, किंतु, पिता का न नाम न बोल सकेंगे ,
इस निखिल विश्व में जिनका कहीं कोई अपना न होगा ,
दिल में लिए उमंग जिन्हें चिर-काल कलपना होगा ....

Friday, November 30, 2007

Void


जब मेरे पेपर चल रहे थे तब मुझे हमेशा ये ही लगता था की यार कब ख़तम हों ये, और कब मैं फ्री हो जाऊं। और अब जब पेपर पूरे हो गए हैं और छुट्टियां हो गयी हैं तो सच में ऐसा लग रहा है की यार इससे तो कल तक ही अच्छा था कम से कम हर समय कुछ करने के लिए तो होता था. Tension रहती थी लेकिन बोरियत तो नहीं होती थी. आज तो सारे दिन मैच ही देखता रहा. जफर सही खेल रहा था लेकिन फिर भी यार पूरा दिन, वो भी test match, इस T20 के ज़माने में, हद् हो गयी! और उसके बाद से यही सोच रहा हूँ अब क्या करून, कहाँ जाऊं, वगेरा वगेरा। इसी सोच में बैठे बैठे घर पे राखी हुई मिठाइयां भी सारी खा गया पता नहीं किस किस के शादी की नाम की अब ये post लिखने भी इसीलिए बैठा हूँ की भाई बाँदा कुछ तो करे. Exams से पहले तो घरवाले भी इतने काम बताते थे, अब उन्हें भी को काम वाम नहीं करवाना मुझसे, कमाल है.

ठण्ड तो काफी हो गयी वैसे इस बार, पर देख रहा हूँ कि कोई मूंगफली and all नहीं मंगवाई हुई घर पे, आज ही ले कर आऊंगा।

हॉस्टेल में रहते रहते शकल भी कौवे जैसी हो गयी है. कल रगड़ रगड़ के मैल उतारना पड़ेगा।

चलो भाई अब मूंगफली लेने जाता हूँ, आधा घंटा और time कटेगा।