Thursday, June 4, 2020

तदा द्रष्टु स्वरूपेवस्थानम

#1.3 तदा द्रष्टु स्वरूपेवस्थानम
हिंदी: तब, पुरुष/आत्मा अपने शुद्ध रूप में वास करती है
English: Then, the seer abides in his own true nature

पिछले सूत्र में अपनी भावनाओं और विचारों पर पूर्ण अंकुश लगाने कि बात की गयी. इसके बाद ये सवाल स्वाभाविक ही है की क्या ऐसा करने का मतलब जीवन त्यागना तो नहीं, चूंकि हमारे जीवन का सम्पूर्ण अनुभव तो हमारे मन के ख्यालों से ही हमें होता है? या फिर क्या पतंजलि एक जड़ स्थिति की कल्पना कर रहे हैं, एक coma के जैसी स्थिति की? इसलिए, इस सूत्र में पतंजलि आपको भरोसा दिलाते हैं की ऐसा नहीं है. वे कहते हैं की वास्तव में, योग द्वारा पायी गयी स्थिति में आत्मा अपने शुद्ध रूप में वास करती है. इसको समझने के लिए हमें पहले ये जान लेना चाहिए की जब वेदांत अथवा योग आत्मा/पुरुष की बात करते है, तब वो आखिर किस चीज़ की बात कर रहे होते है. इस पर चर्चा करते हैं:

जब आप अपनी बात करते हैं, मसलन, जब मैं कहता हूँ की "मैं सुशांत हूँ." तब वो क्या चीज़ है, जिसे मैं सुशांत शब्द से सम्भोदित कर रहा हूँ?

अधिकांशतः जब हम ऐसा कहते हैं तो हमारा अभिप्राय होता है अपने शरीर से, अपने मन-बुद्धि से और उसके विचारों से.

फ्रांस के मशहूर philosopher Descartes ने कहा था, "I think, therefore I am." ऐसा कहकर उन्होंने ये कल्पना की कि मेरा मन/विचार ही मेरे होने का प्रमाण है. जब मैं सोच नहीं रहा होता, जैसे की deep sleep के दौरान, तब मुझे अपना होना भी ज्ञात नहीं होता। अतः सरल शब्दों में कहा जाए तो: मैं कौन हूँ? मैं "मेरा मन / मेरे विचार" हूँ, "मेरा शरीर" मैं नहीं हूँ, मेरा शरीर बस एक वस्तु के समान है.

अभी आपने देखा की Descartes का उत्तर एक आम आदमी के कल्पना से थोड़ा परे था. योग और वेदांत का उत्तर इससे भी एक कदम परे है. इनके अनुसार, जब आप कुछ देखते हैं, तो उस में "दो" के होने का पता चलता है, एक देखने वाले, आप, और एक वो जिसे आप "देख" रहे हैं. यहां पर "देख" शब्द का तात्पर्य केवल आँखों द्वारा देखने से नहीं हैं, दरसल अगर आप किसी चीज़ के होने से अवगत हैं, तो एक आप हैं जो अवगत हैं, और एक वो है आप जिससे अवगत हैं. इस सन्दर्भ में "देख" शब्द को समझिये।

क्या आप अपने कपड़ें देख सकते हैं? हाँ, इसलिए यहाँ 2 के होने का पता चलता है, और निश्चित ही वे कपड़े (द्रिश्य), वे आप नहीं हैं. यहां द्रिश्य (दिखने वाला) है 'कपड़े' और द्रष्टा (देखने वाला) है 'आपकी आँख'. तो क्या आप आपकी आँख/आपका शरीर हैं? अपने आप से पूछिए, क्या आप अपनी आँख के होने से अवगत हैं? हाँ, आपका दिमाग आपकी आँख से आपको अवगत कराता है. इसलिए आँख/शरीर तो हुआ 'द्रिश्य' (अतः आप अपनी आँख / अपना शरीर नहीं हैं) और आपका दिमाग/मन हुआ 'द्रष्टा'।  तो क्या आप अपना दिमाग/मन हैं? इस पर Descartes का उत्तर है "हाँ". परन्तु योग और वेदांत कहता है कि फिर गौर कीजिये, क्या आप अपने दिमाग से अवगत हैं?

अभी तक की सारी व्याख्या छोड़ दें, यदि मैं आपसे पूछता हूँ, "क्या आपको पता है की आपकी बुद्धि क्या विचार कर रही है, आपका मन क्या महसूस कर रहा है?" तो क्या आप "हाँ" नहीं कहेंगे? अर्थात आपकी बुद्धि और मन खुद हुए द्रिश्य, और "आप" हुए द्रष्टा। इस "आप" को योग और वेदांत 'पुरुष' / 'आत्मा' कहते हैं। जिस प्रकार आप के कपड़े केवल एक वस्तु है, उसी तरह, यदि आप अपने आत्मा के द्रिष्टीकोण से देखें, तो आपका शरीर और मन भी केवल वस्तु के समान, और आपकी आत्मा हैं आप।

इस समय, एक और रोचक सवाल यह है की जिस तरह आँख देखती है, कान सुनते हैं, उसी तरह, आत्मा क्या करती है? इसका उत्तर ऊपर की चर्चा में ही है. आत्मा आपके मन से अवगत है (और फलस्वरूप उस सब से अवगत है जिससे आपका मन अवगत है), यह आपके मन-बुद्धि को प्रकाशित करती है, यह "चेतना" ही इस आत्मा की शक्ति है. अब आप इस सूत्र को दोबारा पढ़िए तो आप जानेंगे की उसका अर्थ क्या है: योग के द्वारा "आप" अपने असली रूप में वास कर पाएंगे।

अब सवाल उठता है, आखिर असली रूप में वास करने का क्या मतलब है, क्या अभी, इस समय, आत्मा अपने सही स्वरुप में नहीं है? व्यास इस सूत्र की व्याख्या में कहते हैं की आत्मा तो सदैव ही अपने शुद्ध रूप में वास करती है, दरअसल पतंजलि का मतलब यह है कि जीव को लेकिन यह भ्रम होता है की आत्मा उसके मन/शरीर में हैं (या सरल शब्दों में कहा जाए तो जीव को लगता है की उसका मन और शरीर ही वो है), इसलिए ऐसा कहा जा सकता है की जब तक ये भ्रम है तब तक आत्मा अपने असली स्वरुप में नहीं है. व्यास आत्मा की  तुलना एक कांच से करते हुए समझाते हैं की जिस प्रकार एक लाल वस्त्र पर रखा हुआ कांच खुद लाल प्रतीत होता है, उसी प्रकार मन, बुद्धि और शरीर को प्रकाशित करने वाली आत्मा खुद ही मन, बुद्धि और शरीर के रूप में महसूस होती है, हालांकि ये एक भ्रम है.

आत्मा चेतना है, प्रकाशित करना,अवगत कराना तो इसका स्वभाव ही है, तो फिर यदि यह अपने असली स्वरुप में ही रहेगी, मन-शरीर को प्रकाशित नहीं करेगी, तो फिर यह किसे प्रकाशित करेगी, किससे अवगत होगी?

तब ये खुद से अवगत होगी, और यही योग का लक्ष्य है.

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