#1.4 वृत्तिसारूप्यम इतरत्र
हिंदी: बाकी समय, यह मन की वृत्तियों में समाया रहता है
English: At other times, it is absorbed in the changing states of mind.
मन की वृत्तियाँ यानी की भावनाएं, विचार, अंतर्द्वंद आदि: मन इन्हे आत्मा के समक्ष प्रस्तुत करता है. आत्मा, जिसमे चेतना की शक्ति है, इन वृत्तियों पर प्रकाश डालती है, इनसे अवगत होती है. अतः हम इन भावनाओ से अवगत होते हैं, और मन-बुद्धि को श्रेय देते हैं, या फिर यूँ कहें, की मन बुद्धि को ही अपना सत्य, अपनी आत्मा मानते हैं. और चूंकि मन का तो स्वभाव ही है बदलते रहना, हमें लगता है की हम स्वयं (यानी, हमारी आत्मा) बदलते रहते हैं. इस स्थिर, निश्चल आत्मा को अस्थिर मन के रूप में जानना, इसे योग में "अविद्या (Avidya)" कहा गया है, और अविद्या कारण है जीव के सम्सार (https://berkleycenter.georgetown.edu/essays/samsara-hinduism) के बंधन में बंधे रहने का, प्रकृति से उलझे रहने का. वचस्पति मिश्र इसके उल्लेख में इसकी तुलना एक व्यक्ति से करते हैं, जो एक मैले आईने में अपना प्रतिबिम्ब देख कर खुद को ही मैला समझता है, और परेशान रहता है.
इस प्रकार से अविद्या का वर्णन पतंजलि योग से भी पुराना है. चंदयोग उपनिषद् में इंद्र देवता और विरोचन असुर को पता चलता है की जिसने आत्मा को जीत लिया वो हमेशा के लिए सब कुछ जीत गया. वो दोनों ऋषि प्रजापति के पास पहुँचते हैं यह जानने के लिए की आत्मा को कैसे पाया जाए. ऋषि जानते थे की इनकी नियत भौतिक दुनिया पर वर्चस्व प्राप्त करने की है, इसीलिए परिहास के लिए वे उन्हें अपने लक्ष्य हेतु पानी के कटोरे में देखने को कहते हैं. विरोचन असुर कटोरे में अपना शरीर देख कर संतुष्ट हो जाता है. इंद्र इस उत्तर से असंतुष्ट, ऋषि से पूछते हैं, 'अगर यही आत्मा है तो व्यर्थ है, तो ये तो शरीर के मरने पर मर जायेगी।' इसके बाद ऋषि प्रजापति इंद्र को परत दर परत आत्मज्ञान की सही विधि समझाते हैं.
यह अविद्या ही कारण है की आत्मा, जो वास्तव में सदा शुद्ध और एक सी है, कभी खुश, कभी दुखी, कभी भ्रमित मालूम होती है - हालांकि ये सब तो मन की वृत्तियाँ हैं. राजा भोज इसके उल्लेख में एक झील में प्रतिबिंबित चाँद का उदाहरण देते हैं, जो हमेशा हिलता डुलता सा नज़र आता है, जबकि यह चाँद नहीं, झील का जल है जो हवा से हिल रहा है. जहां एक तरफ चेतना का श्रेय मन-बुद्धि को देना भ्रम है, वहीँ दूसरी तरफ ऐसा मानना की मैं (यानी आत्मा) ये बात सोच रहा हूँ, या वो कार्य कर रहा हूँ, ये भी भ्रम है. सोचने वाला तो मन-बुद्धि है, और करने वाला शरीर है, ये दोनों ही प्रकृति का हिस्सा हैं, पुरुष/आत्मा नहीं। आत्मा इन सब की साक्षी है। योग में आप जब बाहर के सब कार्य, विचार, आदि एकाएक रोक देते हैं, तब ये आभास प्रबल होता की आप तो अब भी हैं; जब मन के विचार, भावनाएं, इनसे आप अवगत नहीं हैं, किसी कार्य से अवगत नहीं हैं, पर अपने होने से अवगत हैं, इसका क्या अर्थ है. आप अगर अब भी हैं, तो आप इन सब से परे हैं, केवल इनको प्रकाशित करने वाली चेतना.
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यहाँ पर एक और प्रैक्टिकल में काम आने वाली बात: अभी तक जिसे हम मन-बुद्धि कह कर एक वस्तु की तरह समझ रहे हैं, उसकी भी कई परतें हैं, जो वैसे तो ध्यान (meditation) से ही बारीकी से समझ आएंगी, हालांकि बात को संक्षेप में रखा जाए तो किसी भी चीज़ के ज्ञान में, एक द्रष्टा होता है, एक द्रिश्य, और एक दूरबीन (ये योग विद्या के शब्द नहीं हैं, केवल संक्षेप में समझाने के लिए इस शब्दावली का प्रयोग कर रहा हूँ). ध्यान करते समय आप इस पर विचार से अपने भीतर झाँक सकते हैं. इससे मन-बुद्धि की परतें भी नज़र आती हैं, उनका उल्लेख आगे:
stage 1: मन (द्रष्टा) इन्द्रियों (दूरबीन) द्वारा बाहर की वस्तुओँ, आवाज़ों (द्रिश्य) से अवगत है
stage 2: अहंकार* मन द्वारा इन्द्रियों (sense organs such as eyes, ears..) से अवगत है
stage 3: बुद्धि अहंकार द्वारा मन से अवगत है
stage 4**: बुद्धि directly नहीं परन्तू stage 3 के निष्कर्ष से अनुमान*** (inference) द्वारा अहंकार से अवगत हैं
और ध्यान लगाने पर:
stage 5: "आप" बुद्धि द्वारा अहंकार से अवगत हैं
stage 5 के आभास से अवगत कराना भी बुद्धि का ही कार्य है, इस प्रकरण में यह बुद्धि का अंतिम कार्य है. इसे विवेक-ख्याति कहा गया है, इसके बाद बुद्धि जान जाती है की वह आपका परम सत नहीं है. इसके बाद,
stage 6: आप/आत्मा बुद्धि से अवगत हैं, अपने शुद्ध रूप में है.
* यहां अहंकार का अर्थ घमंड नहीं है, अहंकार का अर्थ है "अपने कार्यों, शरीर, विचारों को जोड़कर इस सब को एक स्वाधीन इकाई (individual entity), "मैं" की तरह प्रस्तुत करने की शक्ति।
** इसके लिए अहंकार पर ध्यान करने की सलाह दी गयी है
*** चूंकि अनुमान (inferential reasoning) भी बुद्धि की ही शक्ति है, आप stage 4 को ऐसे भी लिख सकते हैं: बुद्धि बुद्धि द्वारा अहंकार से अवगत है
हिंदी: बाकी समय, यह मन की वृत्तियों में समाया रहता है
English: At other times, it is absorbed in the changing states of mind.
मन की वृत्तियाँ यानी की भावनाएं, विचार, अंतर्द्वंद आदि: मन इन्हे आत्मा के समक्ष प्रस्तुत करता है. आत्मा, जिसमे चेतना की शक्ति है, इन वृत्तियों पर प्रकाश डालती है, इनसे अवगत होती है. अतः हम इन भावनाओ से अवगत होते हैं, और मन-बुद्धि को श्रेय देते हैं, या फिर यूँ कहें, की मन बुद्धि को ही अपना सत्य, अपनी आत्मा मानते हैं. और चूंकि मन का तो स्वभाव ही है बदलते रहना, हमें लगता है की हम स्वयं (यानी, हमारी आत्मा) बदलते रहते हैं. इस स्थिर, निश्चल आत्मा को अस्थिर मन के रूप में जानना, इसे योग में "अविद्या (Avidya)" कहा गया है, और अविद्या कारण है जीव के सम्सार (https://berkleycenter.georgetown.edu/essays/samsara-hinduism) के बंधन में बंधे रहने का, प्रकृति से उलझे रहने का. वचस्पति मिश्र इसके उल्लेख में इसकी तुलना एक व्यक्ति से करते हैं, जो एक मैले आईने में अपना प्रतिबिम्ब देख कर खुद को ही मैला समझता है, और परेशान रहता है.
इस प्रकार से अविद्या का वर्णन पतंजलि योग से भी पुराना है. चंदयोग उपनिषद् में इंद्र देवता और विरोचन असुर को पता चलता है की जिसने आत्मा को जीत लिया वो हमेशा के लिए सब कुछ जीत गया. वो दोनों ऋषि प्रजापति के पास पहुँचते हैं यह जानने के लिए की आत्मा को कैसे पाया जाए. ऋषि जानते थे की इनकी नियत भौतिक दुनिया पर वर्चस्व प्राप्त करने की है, इसीलिए परिहास के लिए वे उन्हें अपने लक्ष्य हेतु पानी के कटोरे में देखने को कहते हैं. विरोचन असुर कटोरे में अपना शरीर देख कर संतुष्ट हो जाता है. इंद्र इस उत्तर से असंतुष्ट, ऋषि से पूछते हैं, 'अगर यही आत्मा है तो व्यर्थ है, तो ये तो शरीर के मरने पर मर जायेगी।' इसके बाद ऋषि प्रजापति इंद्र को परत दर परत आत्मज्ञान की सही विधि समझाते हैं.
यह अविद्या ही कारण है की आत्मा, जो वास्तव में सदा शुद्ध और एक सी है, कभी खुश, कभी दुखी, कभी भ्रमित मालूम होती है - हालांकि ये सब तो मन की वृत्तियाँ हैं. राजा भोज इसके उल्लेख में एक झील में प्रतिबिंबित चाँद का उदाहरण देते हैं, जो हमेशा हिलता डुलता सा नज़र आता है, जबकि यह चाँद नहीं, झील का जल है जो हवा से हिल रहा है. जहां एक तरफ चेतना का श्रेय मन-बुद्धि को देना भ्रम है, वहीँ दूसरी तरफ ऐसा मानना की मैं (यानी आत्मा) ये बात सोच रहा हूँ, या वो कार्य कर रहा हूँ, ये भी भ्रम है. सोचने वाला तो मन-बुद्धि है, और करने वाला शरीर है, ये दोनों ही प्रकृति का हिस्सा हैं, पुरुष/आत्मा नहीं। आत्मा इन सब की साक्षी है। योग में आप जब बाहर के सब कार्य, विचार, आदि एकाएक रोक देते हैं, तब ये आभास प्रबल होता की आप तो अब भी हैं; जब मन के विचार, भावनाएं, इनसे आप अवगत नहीं हैं, किसी कार्य से अवगत नहीं हैं, पर अपने होने से अवगत हैं, इसका क्या अर्थ है. आप अगर अब भी हैं, तो आप इन सब से परे हैं, केवल इनको प्रकाशित करने वाली चेतना.
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यहाँ पर एक और प्रैक्टिकल में काम आने वाली बात: अभी तक जिसे हम मन-बुद्धि कह कर एक वस्तु की तरह समझ रहे हैं, उसकी भी कई परतें हैं, जो वैसे तो ध्यान (meditation) से ही बारीकी से समझ आएंगी, हालांकि बात को संक्षेप में रखा जाए तो किसी भी चीज़ के ज्ञान में, एक द्रष्टा होता है, एक द्रिश्य, और एक दूरबीन (ये योग विद्या के शब्द नहीं हैं, केवल संक्षेप में समझाने के लिए इस शब्दावली का प्रयोग कर रहा हूँ). ध्यान करते समय आप इस पर विचार से अपने भीतर झाँक सकते हैं. इससे मन-बुद्धि की परतें भी नज़र आती हैं, उनका उल्लेख आगे:
stage 1: मन (द्रष्टा) इन्द्रियों (दूरबीन) द्वारा बाहर की वस्तुओँ, आवाज़ों (द्रिश्य) से अवगत है
stage 2: अहंकार* मन द्वारा इन्द्रियों (sense organs such as eyes, ears..) से अवगत है
stage 3: बुद्धि अहंकार द्वारा मन से अवगत है
stage 4**: बुद्धि directly नहीं परन्तू stage 3 के निष्कर्ष से अनुमान*** (inference) द्वारा अहंकार से अवगत हैं
और ध्यान लगाने पर:
stage 5: "आप" बुद्धि द्वारा अहंकार से अवगत हैं
stage 5 के आभास से अवगत कराना भी बुद्धि का ही कार्य है, इस प्रकरण में यह बुद्धि का अंतिम कार्य है. इसे विवेक-ख्याति कहा गया है, इसके बाद बुद्धि जान जाती है की वह आपका परम सत नहीं है. इसके बाद,
stage 6: आप/आत्मा बुद्धि से अवगत हैं, अपने शुद्ध रूप में है.
* यहां अहंकार का अर्थ घमंड नहीं है, अहंकार का अर्थ है "अपने कार्यों, शरीर, विचारों को जोड़कर इस सब को एक स्वाधीन इकाई (individual entity), "मैं" की तरह प्रस्तुत करने की शक्ति।
** इसके लिए अहंकार पर ध्यान करने की सलाह दी गयी है
*** चूंकि अनुमान (inferential reasoning) भी बुद्धि की ही शक्ति है, आप stage 4 को ऐसे भी लिख सकते हैं: बुद्धि बुद्धि द्वारा अहंकार से अवगत है
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