Saturday, October 11, 2008

धुंआ

कल रात बैठे बैठे सुबह हो गई
मानो पिंजरे से चिड़िया धुंआ हो गई

ये समझाया, माना बहुत कुछ सितम है
चलो छोड़ दें, जो गई सो गई

जो सालों में उगती है पेडों की लकड़ी
कट के भी तो चूल्हे की जां हो गई

ये बतलाया ख़ुद को की दुनिया में जब भी
कोई बात बिगड़ी , कोई हो गई

कभी चाँद रोता है दागों को अपने ?
कब रोता है सूरज की छाँ खो गई

अब कल को न रोयें, अगर यह करें तो
जो कल तक थी दिक्क़त, दुआ हो गई

फिर रात याद आया जो वीरों का जज़्बा
जोश-ऐ-दिल की तभी इन्तेहाँ हो गई

ये करना है मुमकिन, वो कर देंगे अब तो
ऐसी कसमें हजारों जुबां हो गई

कई बात सोची यूँ तो कल रात हमनें
जो सुबह हो गई , सब धुंआ हो गई

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