Saturday, June 6, 2020

वृत्तिसारूप्यम इतरत्र

#1.4 वृत्तिसारूप्यम इतरत्र
हिंदी: बाकी समय, यह मन की वृत्तियों में समाया रहता है
English: At other times, it is absorbed in the changing states of mind.

मन की वृत्तियाँ यानी की भावनाएं, विचार, अंतर्द्वंद आदि: मन इन्हे आत्मा के समक्ष प्रस्तुत करता है. आत्मा, जिसमे चेतना की शक्ति है, इन वृत्तियों पर प्रकाश डालती है, इनसे अवगत होती है. अतः हम इन भावनाओ से अवगत होते हैं, और मन-बुद्धि को श्रेय देते हैं, या फिर यूँ कहें, की मन बुद्धि को ही अपना सत्य, अपनी आत्मा मानते हैं. और चूंकि मन का तो स्वभाव ही है बदलते रहना, हमें लगता है की हम स्वयं (यानी, हमारी आत्मा) बदलते रहते हैं. इस स्थिर, निश्चल आत्मा को अस्थिर मन के रूप में जानना, इसे योग में "अविद्या (Avidya)" कहा गया है, और अविद्या कारण है जीव के सम्सार (https://berkleycenter.georgetown.edu/essays/samsara-hinduism) के बंधन में बंधे रहने का, प्रकृति से उलझे रहने का. वचस्पति मिश्र इसके उल्लेख में इसकी तुलना एक व्यक्ति से करते हैं, जो एक मैले आईने में अपना प्रतिबिम्ब देख कर खुद को ही मैला समझता है, और परेशान रहता है.

इस प्रकार से अविद्या का वर्णन पतंजलि योग से भी पुराना है. चंदयोग उपनिषद् में इंद्र देवता और विरोचन असुर को पता चलता है की जिसने आत्मा को जीत लिया वो हमेशा के लिए सब कुछ जीत गया. वो दोनों ऋषि प्रजापति के पास पहुँचते हैं यह जानने के लिए की आत्मा को कैसे पाया जाए. ऋषि जानते थे की इनकी नियत भौतिक दुनिया पर वर्चस्व प्राप्त करने की है, इसीलिए परिहास के लिए वे उन्हें अपने लक्ष्य हेतु पानी के कटोरे में देखने को कहते हैं. विरोचन असुर कटोरे में अपना शरीर देख कर संतुष्ट हो जाता है. इंद्र इस उत्तर से असंतुष्ट, ऋषि से पूछते हैं, 'अगर यही आत्मा है तो व्यर्थ है, तो ये तो शरीर के मरने पर मर जायेगी।' इसके बाद ऋषि प्रजापति इंद्र को परत दर परत आत्मज्ञान की सही विधि समझाते हैं.

यह अविद्या ही कारण है की आत्मा, जो वास्तव में सदा शुद्ध और एक सी है, कभी खुश, कभी दुखी, कभी भ्रमित मालूम होती है - हालांकि ये सब तो मन की वृत्तियाँ हैं. राजा भोज इसके उल्लेख में एक झील में प्रतिबिंबित चाँद का उदाहरण देते हैं, जो हमेशा हिलता डुलता सा नज़र आता है, जबकि यह चाँद नहीं, झील का जल है जो हवा से हिल रहा है. जहां एक तरफ चेतना का श्रेय मन-बुद्धि को देना भ्रम है, वहीँ दूसरी तरफ ऐसा मानना की मैं (यानी आत्मा) ये बात सोच रहा हूँ, या वो कार्य कर रहा हूँ, ये भी भ्रम है. सोचने वाला तो मन-बुद्धि है, और करने वाला शरीर है, ये दोनों ही प्रकृति का हिस्सा हैं, पुरुष/आत्मा नहीं। आत्मा इन सब की साक्षी है। योग में आप जब बाहर के सब कार्य, विचार, आदि एकाएक रोक देते हैं, तब ये आभास प्रबल होता की आप तो अब भी हैं; जब मन के विचार, भावनाएं, इनसे आप अवगत नहीं हैं, किसी कार्य से अवगत नहीं हैं, पर अपने होने से अवगत हैं, इसका क्या अर्थ है. आप अगर अब भी हैं, तो आप इन सब से परे हैं, केवल इनको प्रकाशित करने वाली चेतना.

- - - - - - -

यहाँ पर एक और प्रैक्टिकल में काम आने वाली बात: अभी तक जिसे हम मन-बुद्धि कह कर एक वस्तु की तरह समझ रहे हैं, उसकी भी कई परतें हैं, जो वैसे तो ध्यान (meditation) से ही बारीकी से समझ आएंगी, हालांकि बात को संक्षेप में रखा जाए तो किसी भी चीज़ के ज्ञान में, एक द्रष्टा होता है, एक द्रिश्य, और एक दूरबीन (ये योग विद्या के शब्द नहीं हैं, केवल संक्षेप में समझाने के लिए इस शब्दावली का प्रयोग कर रहा हूँ). ध्यान करते समय आप इस पर विचार से अपने भीतर झाँक सकते हैं. इससे मन-बुद्धि की परतें भी नज़र आती हैं, उनका उल्लेख आगे:

stage 1: मन (द्रष्टा) इन्द्रियों (दूरबीन) द्वारा बाहर की वस्तुओँ, आवाज़ों (द्रिश्य) से अवगत है 
stage 2: अहंकार* मन द्वारा इन्द्रियों (sense organs such as eyes, ears..) से अवगत है
stage 3: बुद्धि अहंकार द्वारा मन से अवगत है
stage 4**:  बुद्धि directly नहीं परन्तू stage 3 के निष्कर्ष से अनुमान*** (inference) द्वारा अहंकार से अवगत हैं
और ध्यान लगाने पर:
stage 5: "आप" बुद्धि द्वारा अहंकार से अवगत हैं
stage 5 के आभास से अवगत कराना भी बुद्धि का ही कार्य है, इस प्रकरण में यह बुद्धि का अंतिम कार्य है. इसे विवेक-ख्याति कहा गया है, इसके बाद बुद्धि जान जाती है की वह आपका परम सत नहीं है. इसके बाद,
stage 6: आप/आत्मा  बुद्धि से अवगत हैं, अपने शुद्ध रूप में है.

* यहां अहंकार का अर्थ घमंड नहीं है, अहंकार का अर्थ है "अपने कार्यों, शरीर, विचारों को जोड़कर इस सब को एक स्वाधीन इकाई (individual entity), "मैं" की तरह प्रस्तुत करने की शक्ति।
** इसके लिए अहंकार पर ध्यान करने की सलाह दी गयी है
*** चूंकि अनुमान (inferential reasoning) भी बुद्धि की ही शक्ति है, आप stage 4 को ऐसे भी लिख सकते हैं: बुद्धि बुद्धि द्वारा अहंकार से अवगत है

Thursday, June 4, 2020

तदा द्रष्टु स्वरूपेवस्थानम

#1.3 तदा द्रष्टु स्वरूपेवस्थानम
हिंदी: तब, पुरुष/आत्मा अपने शुद्ध रूप में वास करती है
English: Then, the seer abides in his own true nature

पिछले सूत्र में अपनी भावनाओं और विचारों पर पूर्ण अंकुश लगाने कि बात की गयी. इसके बाद ये सवाल स्वाभाविक ही है की क्या ऐसा करने का मतलब जीवन त्यागना तो नहीं, चूंकि हमारे जीवन का सम्पूर्ण अनुभव तो हमारे मन के ख्यालों से ही हमें होता है? या फिर क्या पतंजलि एक जड़ स्थिति की कल्पना कर रहे हैं, एक coma के जैसी स्थिति की? इसलिए, इस सूत्र में पतंजलि आपको भरोसा दिलाते हैं की ऐसा नहीं है. वे कहते हैं की वास्तव में, योग द्वारा पायी गयी स्थिति में आत्मा अपने शुद्ध रूप में वास करती है. इसको समझने के लिए हमें पहले ये जान लेना चाहिए की जब वेदांत अथवा योग आत्मा/पुरुष की बात करते है, तब वो आखिर किस चीज़ की बात कर रहे होते है. इस पर चर्चा करते हैं:

जब आप अपनी बात करते हैं, मसलन, जब मैं कहता हूँ की "मैं सुशांत हूँ." तब वो क्या चीज़ है, जिसे मैं सुशांत शब्द से सम्भोदित कर रहा हूँ?

अधिकांशतः जब हम ऐसा कहते हैं तो हमारा अभिप्राय होता है अपने शरीर से, अपने मन-बुद्धि से और उसके विचारों से.

फ्रांस के मशहूर philosopher Descartes ने कहा था, "I think, therefore I am." ऐसा कहकर उन्होंने ये कल्पना की कि मेरा मन/विचार ही मेरे होने का प्रमाण है. जब मैं सोच नहीं रहा होता, जैसे की deep sleep के दौरान, तब मुझे अपना होना भी ज्ञात नहीं होता। अतः सरल शब्दों में कहा जाए तो: मैं कौन हूँ? मैं "मेरा मन / मेरे विचार" हूँ, "मेरा शरीर" मैं नहीं हूँ, मेरा शरीर बस एक वस्तु के समान है.

अभी आपने देखा की Descartes का उत्तर एक आम आदमी के कल्पना से थोड़ा परे था. योग और वेदांत का उत्तर इससे भी एक कदम परे है. इनके अनुसार, जब आप कुछ देखते हैं, तो उस में "दो" के होने का पता चलता है, एक देखने वाले, आप, और एक वो जिसे आप "देख" रहे हैं. यहां पर "देख" शब्द का तात्पर्य केवल आँखों द्वारा देखने से नहीं हैं, दरसल अगर आप किसी चीज़ के होने से अवगत हैं, तो एक आप हैं जो अवगत हैं, और एक वो है आप जिससे अवगत हैं. इस सन्दर्भ में "देख" शब्द को समझिये।

क्या आप अपने कपड़ें देख सकते हैं? हाँ, इसलिए यहाँ 2 के होने का पता चलता है, और निश्चित ही वे कपड़े (द्रिश्य), वे आप नहीं हैं. यहां द्रिश्य (दिखने वाला) है 'कपड़े' और द्रष्टा (देखने वाला) है 'आपकी आँख'. तो क्या आप आपकी आँख/आपका शरीर हैं? अपने आप से पूछिए, क्या आप अपनी आँख के होने से अवगत हैं? हाँ, आपका दिमाग आपकी आँख से आपको अवगत कराता है. इसलिए आँख/शरीर तो हुआ 'द्रिश्य' (अतः आप अपनी आँख / अपना शरीर नहीं हैं) और आपका दिमाग/मन हुआ 'द्रष्टा'।  तो क्या आप अपना दिमाग/मन हैं? इस पर Descartes का उत्तर है "हाँ". परन्तु योग और वेदांत कहता है कि फिर गौर कीजिये, क्या आप अपने दिमाग से अवगत हैं?

अभी तक की सारी व्याख्या छोड़ दें, यदि मैं आपसे पूछता हूँ, "क्या आपको पता है की आपकी बुद्धि क्या विचार कर रही है, आपका मन क्या महसूस कर रहा है?" तो क्या आप "हाँ" नहीं कहेंगे? अर्थात आपकी बुद्धि और मन खुद हुए द्रिश्य, और "आप" हुए द्रष्टा। इस "आप" को योग और वेदांत 'पुरुष' / 'आत्मा' कहते हैं। जिस प्रकार आप के कपड़े केवल एक वस्तु है, उसी तरह, यदि आप अपने आत्मा के द्रिष्टीकोण से देखें, तो आपका शरीर और मन भी केवल वस्तु के समान, और आपकी आत्मा हैं आप।

इस समय, एक और रोचक सवाल यह है की जिस तरह आँख देखती है, कान सुनते हैं, उसी तरह, आत्मा क्या करती है? इसका उत्तर ऊपर की चर्चा में ही है. आत्मा आपके मन से अवगत है (और फलस्वरूप उस सब से अवगत है जिससे आपका मन अवगत है), यह आपके मन-बुद्धि को प्रकाशित करती है, यह "चेतना" ही इस आत्मा की शक्ति है. अब आप इस सूत्र को दोबारा पढ़िए तो आप जानेंगे की उसका अर्थ क्या है: योग के द्वारा "आप" अपने असली रूप में वास कर पाएंगे।

अब सवाल उठता है, आखिर असली रूप में वास करने का क्या मतलब है, क्या अभी, इस समय, आत्मा अपने सही स्वरुप में नहीं है? व्यास इस सूत्र की व्याख्या में कहते हैं की आत्मा तो सदैव ही अपने शुद्ध रूप में वास करती है, दरअसल पतंजलि का मतलब यह है कि जीव को लेकिन यह भ्रम होता है की आत्मा उसके मन/शरीर में हैं (या सरल शब्दों में कहा जाए तो जीव को लगता है की उसका मन और शरीर ही वो है), इसलिए ऐसा कहा जा सकता है की जब तक ये भ्रम है तब तक आत्मा अपने असली स्वरुप में नहीं है. व्यास आत्मा की  तुलना एक कांच से करते हुए समझाते हैं की जिस प्रकार एक लाल वस्त्र पर रखा हुआ कांच खुद लाल प्रतीत होता है, उसी प्रकार मन, बुद्धि और शरीर को प्रकाशित करने वाली आत्मा खुद ही मन, बुद्धि और शरीर के रूप में महसूस होती है, हालांकि ये एक भ्रम है.

आत्मा चेतना है, प्रकाशित करना,अवगत कराना तो इसका स्वभाव ही है, तो फिर यदि यह अपने असली स्वरुप में ही रहेगी, मन-शरीर को प्रकाशित नहीं करेगी, तो फिर यह किसे प्रकाशित करेगी, किससे अवगत होगी?

तब ये खुद से अवगत होगी, और यही योग का लक्ष्य है.

Wednesday, June 3, 2020

On Black Lives Matter, Migrant Labour Crisis, and Elephant Killing

https://www.cnn.com/2020/06/04/asia/india-elephant-death-intl-hnk-scli/index.html
https://www.ndtv.com/entertainment/abhay-deol-is-twitters-new-hero-for-calling-out-woke-indian-celebs-2240094

Please do speak up against the violent death of the elephant, but question yourself, why do we move so swiftly from compassion for the elephant to blaming an entire state and people for supposedly ingrained violent tendencies? No act of violence can define a people at large; is there any other state entirely clean of violence? And while you're at it, cultivate the healthy skepticism that you may not know the full story yet, that the elephant's death might have been an accident, an unintended consequence of saving crops from boars*?

*But then again, question yourself, why it is OK to kill boars intentionally, not elephants unintentionally, with the explosive pineapples? Looking for a reason more convincing than "they damage crops", we are talking about internal explosions here, after all! Are different levels of sensitivity warranted for different species of animals? Is that an extension of how different levels of sensitivity are the norm for different races** of humans?

**Or genders or nationalities or religions or orientations or classes or castes - pick the discrimination that moves you most; and again question yourself, why do I only feel moved to speak up by that particular style of discrimination***, even though they all are in principle the same, that is, discrimination against someone for something that was determined for them at birth, with no input of their own?

***But then again question yourself, what's so wrong with speaking up for only a few of all the injustices? Should one not speak up for any injustice, if he does not speak up for all? If one doesn't speak up for injustice against migrant labour in India, does he have no right to speak up for injustice against the black people in the US? If he remained silent about one injustice, is it better if he keeps shut about all injustices? Would the world be a better place with that approach?

Tuesday, June 2, 2020

On why, and why not, to condone Virtue Signaling

https://www.nytimes.com/2019/03/30/opinion/sunday/virtue-signaling.html

Interesting article that compels you to re-consider your own assumptions, and discourages one from dismissing other people's outrage as mere virtue signalling. The authors point out that doing so is ill-advised, because "virtue signalling does not mean that their outrage is not authentic."

Virtue Signalling is when someone expresses outrage over something not so much because he is truly outraged, but because he thinks that doing so will signal to others how he himself is morally superior to those he is outraged by. After all, it is easier to appear environmentally conscious by expressing outrage on social media about carbon dioxide emissions from big corporations, than by turning off your own AC, or even forsaking consuming the products manufactured by those corporate houses. Additionally, it is impolite to just come out say "I care a lot about the environment" - that would just seem vain and off-putting - so expressing outrage at someone else who's being careless about climate change is more clever.

The authors of the article above, however, reached this conclusion (that outrage can be both authentic and virtue signalling simultaneously) in a convoluted way that is far from convincing. 

To summarize their experiment, they showed a group of people a video where a person is given some money, and then given the option to share some of it with another person if he so wishes. The person in the video chooses not to share the money, and keeps all of it for himself. Then the people watching the video are asked how outraged they felt by seeing this behaviour, and they all responded anonymously. The interesting part is that prior to watching the video, half of these people were also given some money and the option to share it (privately and anonymously such that it couldn't be identified by anyone, including the researchers, who those people were that got this deal). It turned out that the half that had got the deal prior to watching the video ultimately reported far less outrage on seeing the video, than the half that did not get the deal themselves.

The researchers' inferential reasoning seems to coersively bring 'virtue signalling' into the picture. They suggest that the first experiment (some participants being given money and the option to give away some of it) reduced the incentive for virtue signalling. This argument is made articulately. To paraphrase the authors: "After all, if a participant chose to share, she would look virtuous regardless of how much outrage she subsequently expressed toward the selfish person. And if she chose not to share, she would look dishonorable regardless of how much outrage she later expressed." And I agree, if there was an incentive for virtue signalling in the first place, it would have been greatly reduced after the first option-to-give-away-money experiment.

However, since the experiment was anonymized the entire time, there isn't a strong basis to suggest that such an incentive ever existed. The argument that there was a hypothetical incentive on the part of the participants (i.e. they acted as if the experiment wasn't anonymous, although it was and they knew that it was) seems to be drawn on a whim out of thin air, and therefore the subsequent assertion that this incentive was reduced is also weak. It would have been better if the experiment was anonymous at large but not to the researchers themselves - then the inference they drew would have been more meaningful. 

To my mind, there is a more plausible route of inference that the researchers could have taken, but didn't, based on their experiment's results; which is that people have incomplete and inaccurate knowledge of their own volition. That is, of what they would do under a given situation. As an example, in this case, they overestimated their generosity, except in cases where their generosity had already been put to the test. 

Again, it might well be true that outrage can be "both" authentic as well as driven by a desire to look morally superior, but their study does not establish it. Their conclusion, on careful scrutiny, seems more like their hypothesis, which their experiment was ill-equipped to prove.

Ultimately, there is a much simpler way to conclude that shaming people for virtue signalling is inappropriate: it is simply hypocritical. When you dismiss someone's outrage as virtue signalling, you may be indulging in virtue signalling yourself. If your retort to this is that only you know your own motivations with certainty and therefore 'know' that you're being authentic, then the argument could be reversed: only the people whose outrage you're dismissing as virtue signalling know their own motivations with certainty. 

Therefore, if you must express your disagreement with a certain expression of outrage, address the outrage expressed and its merits, not the person expressing outrage and his motivations.