#1.2 योगश्चित्तवृत्तिनिरोध:
हिंदी: मन के हर समय बदलते रूपों को स्थिर करना ही योग है
English: Yoga is stilling the changing states of the mind
यह शायद पतंजलि योगसूत्र का सबसे प्रसिद्द सूत्र है। ये छोटी सी पंक्ति है, पर यहां पर हमें कुछ बुनियादी सिद्धांत साफ़ कर लेने चाहिए, इसलिए आज का उल्लेख थोड़ा लम्बा होगा। भगवद् गीता में 4 प्रकार के योग का वर्णन है: कर्म योग (हर कार्य को निष्ठा और निस्वार्थ भाव से करना), भक्ति योग (भगवान से प्यार करना), ज्ञान योग (सत्य को जिज्ञासा और अध्यन से जानना) और राज-योग / ध्यान-योग / सांख्य-योग (एकाग्र आत्मशोध या अंग्रेजी में meditation). पतंजलि योगसूत्र में जब भी योग की बात होती है, तो तात्पर्य ध्यान योग से है। प्राचीन भारत में सनातन धर्म की जो शाखाएं थी, उनमे वेदांत से भी प्राचीन मानी जाती है "सांख्य", जिसका उदय ऋषि कपिल से हुआ, और चूंकि योग (ध्यान योग) इस शाखा से निकला, इसलिए ध्यान योग को सांख्य योग भी कहते हैं। आपको शायद रूचि हो की इन शाखाओं में क्या अंतर था, क्या इनके अलग अलग भगवान् थे? नहीं, वे शाखाएं तो कई शताब्दियों बाद आयी, पौराणिक काल में। उससे पहले वदिक काल में जो शाखाएं थी - उनमे फर्क था उनकी अपनी अपनी सत्य के वर्णन को लेकर - आखिर इस सृष्टि की, इस जीवन का, और सबसे महत्वपूर्ण हमारे अंतर्मन का सत्य क्या है - इस विषय पर इन शाखाओं की अलग अलग धारणा थी। इनमें बहुत कुछ एक सा था, परन्तु कुछ सूक्ष्म अंतर भी थे। कुछ परेशानी इनकी अपनी अलग अलग शब्दावली से भी आती है। मसलन, वेदांत में सृष्टि के सत्य को आत्मन और माया में बांटा है, तो सांख्य और योग ने पुरुष और प्रकृति में बांटा है। पुरुष और आत्मन लगभग एक से हैं, पर पूरी तरह नहीं, ऐसे ही माया और प्रकृति में भी थोड़ा फर्क है, हालांकि समानता भी बहुत है। खैर, ये बस इस शाखा के परिचय के लिए, जिससे योग का जन्म हुआ। योग की शाखा ने सांख्य के वर्णन को सही तो माना, परन्तु योग की शाखा का विशेष प्रयास था उन तरीको के विकास में जिससे ये सत्य आप स्वयं अनुभव कर सके।
प्रकृति वो पदार्थ (matter) है जिससे ये भौतिक (material) सृष्टि बनी है, और पुरुष वह आत्मा जिसमे वाकई प्राण हैं, पुरुष सत्य है, पुरुष असलियत है। पुरुष और प्रकृति के मिलने से ही इस सृष्टि का खेल चलता है। प्रकृति में जो कुछ भी वो तीन गुणों से बना है: सत्व, राजस, और तमस। जो जितना अधिक सूक्ष्म है, जैसे हवा, बुद्धि, आग, उसमे उतना सत्व ज़्यादा और तामस कम है, और जो जितना ठोस या स्थूल है, जिसे आप भौतिक पैमाने पर माप सकते हैं, जैसे पत्थर, उसमें उतना ज़्यादा तमस। असल में जो भी आप अपने इन्द्रियों से महसूस कर सकते हैं, वह प्रकृति का हिस्सा है। योग का पूरा प्रयास आपको स्थूलता से सूक्ष्मता की ओर, तमस से सत्व की और ले जाने का है। अंततः उद्देश्य है पुरुष का आभास कराने का, जो की सत्व से भी परे है (पुरुष निर्गुण है, उसमें कोई गुण नहीं, सत्व भी नहीं), पर जो कुछ प्राकृतिक है उसमे पुरुष के सबसे समीप जो कुछ हैं, वह सब सत्व-प्रधान है। सांख्य के अनुसार पुरुष और प्रकृति के border पर हैं: बुद्धि, फिर अहंकार, फिर मनस। बुद्धि बहुत सूक्ष्म, बहुत सत्व-प्रधान है, परन्तु वो भी प्रकृति में है, पुरुष नहीं। मनस के बाद आती हैं इन्द्रियां (sense organs), और उसके बाद हाथ, पैर, बाकी शरीर (motor organs). हमारी इन्द्रियाँ जो भी बाहरी दुनिया की वस्तुएं या घटनाएं अनुभव करती हैं, मन उन अनुभवों में विलीन रहकर उनको organize करता है, इन वस्तुओं को उनके function/भूमिका के आधार पर समझता है. आँखें लकड़ी देखती है, मन तय करता है ये लकड़ी एक कुर्सी है, वो लकड़ी एक लाठी। अहंकार हमारे चित्त का वो हिस्सा है जिससे हमें यह आभास होता ही की यह लकड़ी "मैंने" देखी है, की मैं एक चीज़ हूँ, अपने आप में एक चरित्र। बुद्धि हमारे चित्त का वो हिस्सा है जो हममें विश्लेषण करने की, फैसले लेने की ताकत देता है, बताता है की क्या सही है, क्या गलत, क्या अच्छा है, क्या बुरा।
बुद्धि में सत्व बहुत है, जिसके कारण वो लगभग transparent है, और पुरुष उससे होता हुआ अहंकार वाले हिस्से से मानो आईने की तरह प्रतिबिंबित (reflect) होता है - इसलिए हमें हमारे वास्तविक होने का आभास होता है। हमारी बुद्धि हमें पुरुष के निकट ले जा सकती है, परन्तु योग के अनुसार समस्या ये है की मन/मनस बहुत चंचल है, और चूंकि वो स्थिर नहीं रहता, और चूंकि बुद्धि उसी चीज़ पर विचार कर सकती है जो मनस उस तक लाता है, हमारी बुद्धि हमें पुरुष (सत्य) के पास ले जाने में असमर्थ है. इसीलिए, उपाय है मन को स्थिर करना।